ग़ज़ल
अदीब बनके निकले थे तेरे आशियाने को
हक़ीक़त ये थी कि मैं इश्क़ में फ़ाज़िल नही था।
इक्तिज़ा थी मेरी कि तू भी इक़रार करे
मगर इज़हार-ए-इश्क़ मेरा, तेरे मुताबिक़ नही था।
इत्तेफ़ाक़न इश्क़ समझ बैठा दिल-ए-आश्ना को
तेरे अंदाज़-ए-गुफ़्तगू से मैं वाक़िफ नही था।
असीर बनके रह गया हूँ कैद-ए-तन्हाई का
मेरा ज़ामिन कोई भी तेरे माफ़िक़ नही था।
सुना है वो भी अब शर्मिन्दा है "गौरव"
तासीर से मैं भी इतना,नाकाबिल नही था।।
✍️गौरव
भोपाल मध्यप्रदेश
16.06.2020
अदीब- जानकार फ़ाज़िल- निपुण
इक्तिज़ा- चाह आश्ना- जान पहचान
असीर- क़ैदी ज़ामिन- जमानतदार
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