Friday, 1 August 2025

असीर (ग़ज़ल)

 ग़ज़ल


अदीब बनके निकले थे तेरे आशियाने को

हक़ीक़त ये थी कि मैं इश्क़ में फ़ाज़िल नही था।


इक्तिज़ा थी मेरी कि तू भी इक़रार करे

मगर इज़हार-ए-इश्क़ मेरा,  तेरे मुताबिक़ नही था।


इत्तेफ़ाक़न इश्क़ समझ बैठा दिल-ए-आश्ना को

तेरे अंदाज़-ए-गुफ़्तगू से मैं वाक़िफ नही था।


असीर बनके रह गया हूँ कैद-ए-तन्हाई का

मेरा ज़ामिन कोई भी तेरे माफ़िक़ नही था।


सुना है वो भी अब शर्मिन्दा है "गौरव"

तासीर से मैं भी इतना,नाकाबिल नही था।।


✍️गौरव

भोपाल मध्यप्रदेश

16.06.2020

अदीब- जानकार     फ़ाज़िल- निपुण

इक्तिज़ा- चाह         आश्ना- जान पहचान

असीर- क़ैदी        ज़ामिन- जमानतदार

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